यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
|
9 पाठकों को प्रिय 320 पाठक हैं |
बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
कोवलम्
कोवलम् बीच त्रिवेन्द्रम् से सात मील दूर है। उसे यह नाम शायद इसलिए दिया गया है कि उसका आकार मलयालम् के अक्षर 'को' से मिलता-जुलता है।
मेरा इरादा रात वहाँ के रेस्ट-हाउस में काटने का था। यह सोचकर कि बिस्तर वहीं मिल जाएगा, मैं अपना सामान त्रिवेन्द्रम् के होटल में ही छोड़ आया था।
जिस बस्ती में बस ने छोड़ा, वहाँ से बीच एक मील पर था। शाम हो चुकी थी। मैंने स्टाप पर उतरकर अपने आसपास देखा। कुछ दूर तीन-चार बुड्ढे पत्थरों पर बैठे अपनी ज्ञान-गोष्ठी में लीन थे। एक लड़का साथ-साथ बँधी पन्द्रह-बीस बकरियों को हाँक रहा था। सड़क के मोड़ के पास एक स्त्री चूल्हा जला रही थी। बायीं तरफ चाय की दुकान में अँगीठी पर पानी उबल रहा था। मैं पहले एक प्याली चाय पी लेने के लिए उस दुकान के अन्दर चला गया।
वहाँ कितने ही लोग चाय पी रहे थे। एक बाहर के व्यक्ति को आया देखकर उनकी बातचीत रुक गयी। मैं कुछ बेढब-सा महसूस करता एक तरफ़ जा बैठा। जब तक मेरी चाय आयी, तब तक एक अधेड़ व्यक्ति उठकर मेरे पास आ गया। उसने आते ही पूछना शुरू किया कि मैं कहाँ से आया हूँ और उस जगह मेरे आने का कारण क्या है। यह जानकर कि मैं दिल्ली की तरफ़ से आया हूँ, वह पास की कुर्सी पर बैठ गया और दिल्ली के बारे में तरह-तरह की बातें पूछने लगा।
कुछ देर बाद जब मैं चाय पीकर उस दुकान से निकला, तो वह भी मेरे साथ था। उसकी बातें अभी समाप्त नहीं हुई थीं, इसलिए कोबलम् की सड़क पर भी वह मेरे साथ-साथ चलने लगा। सुनसान सड़क थी। दूर तक कोई आता-जाता दिखाई नहीं दे रहा था। अँधेरा भी उतर आया था। मुझे उसका साथ चलना अच्छा ही लगा, क्योंकि अकेले में हो सकता था किसी ग़लत रास्ते पर भटक जाता। वह मुझसे सब कुछ पूछ चुकने के बाद अब अपने बारे में बता रहा था। वह वहाँ से कुछ मील दूर एक गाँव में रहता था। "हमारे गाँव का ज़मींदार बहुत ज़ालिम आदमी है," वह कह रहा था। "मगर ऊपर तक उसकी इतनी पहुँच है, कि कभी उस पर कोई जाँच नहीं आती। सारा इलाक़ा उससे थर-थर काँपता है। किसानों पर झूठे मुक़दमे बनाना, उन्हें पिटवाना या जान से मरवा देना और उनकी बहू-बेटियों की इज्ज़त उतारना, ये सब उसके रोज़ के कारनामे हैं। क्या किसी तरह उस आदमी की रिपोर्ट पंडित नेहरू तक नहीं पहुँचायी जा सकती?"
रास्ता सँकरा था और जगह-जगह उसमें फिसलन भी थी। एकाध जगह मेरा पाँव फिसलने को हुआ, तो बाँह से पकड़कर उसने मुझे सँभाल लिया। जमींदार पर अपने मन का गुबार निकाल चुकने के बाद वह मुझे वहाँ के जीवन के बारे में और-और बातें बताने लगा। आखिर हम उस दोराहे पर पहुँच गये जहाँ से एक रास्ता रेस्ट-हाउस की तरफ़ जाता था और दूसरा बीच की तरफ। मैंने सोचा कि पहले कुछ देर बीच पर बैठते हैं-रेस्ट-हाउस में जाकर तो सोना ही है, वहाँ किसी भी समय जाया जा सकता है।
बीच पर आकर हम लोग काफ़ी देर रेत पर टाँगें फैलाये बैठे रहे। वह उसी तरह बात करता रहा-अपने बारे में, गाँव के बारे में, वहाँ के लोगों के बारे में-बच्चों की-सी सादगी के साथ। सामने समुद्र का पानी अजब बेबसी के साथ अँधेरे में छटपटा रहा था। लहरों का झाग एक धमाके के साथ रेत से टकराता, फिर हारा-सा लौट जाता। कुछ देर दूर कुनमुनाने के बाद फिर उसी तरह ज़ोर से आकर टकराता और फिर लौट जाता।
"हम लोग यहाँ आधे भूखे रहकर ज़िन्दगी काटते हैं," वह कह रहा था। "महँगाई दिन-ब-दिन इस तरह बढ़ती जा रही है कि हम लोग चावल तो क्या, मार्चनी-टेपियोका-भी भर-पेट नहीं खा पाते। वह दिन बहुत ख़ुशक़िस्मती का होता है जिस दिन खाने को चावल मिल जाए। कई बार हम लोग सिर्फ़ भुनी हुई मछली खाकर रह जाते हैं क्योंकि तेल के लिए पैसे नहीं होते। एक यह समुद्र ही है जिसने अब तक हमारे मछली के कोटे में कमी नहीं की-पता नहीं किस दिन सरकार इस पर भी प्रतिबन्ध लगा दे और हमें मछली मिलना भी मुश्किल हो जाए।"
|
- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान